Wednesday, July 16, 2008

कल की आशा

कल की आशा
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कल फिर धूप झांकेगी खिड़की से |
कल फिर सुबह सुनेहरी होगी |
कल फिर चिड़ियाँ बोलेंगी पेड़ की डाली से |
कल फिर बाग में गिलहरी होगी |

हैं आज तो बादल आसमान पर |
है आज तो बाग बिखरी हुई |
है आज तो स्यह पर्दा सूरज पर |
हैं आज तो डालीयाँ उजड़ी हुई |
हूं आज मैं बेवश और शर्मिन्दा हूं |
पर कल कि आश मैं ज़िन्दा हूं |

बिखरे हैं घर आज बिखरी जज़बातें हैं |
बिखरे हैं जान आज बिखरी उम्मीदें हैं |
बिखरे हैं मान आज बिखरी हर बातें हैं |
बिखरे हैं भविष्य आज बिखरी आशयें हैं |
पर कल समेटने की आशा है मुझमें |
फिर कल बटोरके बनाने का विश्वास है मुझमें |

कल फिर बाग में गिलहरीयां खेलेंगी |
कल फिर चिड़ियाँ गायेंगी पेड़ों की डालीयों से |
कल फिर सुबहें सुनेहरी होंगी |
कल फिर धूप झांकेगी खिड़कीयों से |



Penned by me on the 10th of July 2008 while trying to go from Balasore to Kharagpur to go to Kolkata to catch the train to Patna to attend Swapnil's wedding.

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Edit Note: The poem is not about me or my life...it's about the flood affected areas in Balasore.